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    Homeउत्तर प्रदेशफतेहपुरभगवान विष्णु के जागरण का महापर्व - देवोत्थानी एकादशीलेखक-  शैलेन्द्र कुमार द्विवेदी

    भगवान विष्णु के जागरण का महापर्व – देवोत्थानी एकादशीलेखक-  शैलेन्द्र कुमार द्विवेदी

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    यह देश अनेकानेक प्रकार के विविध पर्वों का देश है । गीत- संगीत का देश है । जीवंतता – जिंदादिली का देश है । अध्यात्म और दर्शन यहां के रग-रग में समाया हुआ है। युगों प्राचीन परंपराएं काल के शाश्वत प्रवाह में नूतन रूपाकार ग्रहण करती अपनी प्राणवत्ता में आज भी हम सबमें  पहले जैसी ही सांस – सांस में समाहित  हैं।
       अवतारवाद ,पाप- पुण्य , पुनर्जन्म, स्वर्ग- नर्क एवं मोक्ष , सर्व समन्वय, सर्व धर्म समभाव , पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णाश्रम व्यवस्था, एकेश्वरवाद, निरीश्वरवाद ,बहुदेववाद,शैव, वैष्णव, शाक्त इत्यादि की अवधारणाएं जाने कब से वैसी  की वैसी ही भारतीयता में  रची – बसी एक दूसरे के गलबहियां डाले अत्यंत प्रीति प्रपूरित  हो चली आ रही  हैं ।
      जाने कितने  देशों की पुरातन सभ्यताएं और संस्कृतियां काल के कराल  गाल में समा गईं। आज उनका कोई नाम लेवा भी नहीं है। लेकिन हमारे देश  की यह सनातन संस्कृति आज भी उसी शान से फूल फल रही है । यह साधारण बात नहीं है। इतनी दूर तक आने में हमारे पूर्वजों ने जाने कितना सहा और भोगा है। उनकी कितनी ही कुर्बानियों का परिणाम है कि हमारी यह सर्वप्राचीन संस्कृति और सभ्यता   आज भी जीवित बची हुई है । इकबाल साहब   के कथन का एक-एक अक्षर सच के तराजू में तौलकर रखा गया है – “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं  हमारी ,
    सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।”
    तभी तो हमारे  ऋषियों ने भी “गायन्ति  देवा: किल गीतकानि,
    धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे।
    स्वर्गापवर्गास्पद मार्ग भूत:,
    भवंति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।।”गाकर इस देश की प्रतिष्ठा का जयघोष किया ।
      किसी राष्ट्र का निर्माण अपनी पूर्णता में   मात्र निश्चित क्षेत्रफल और उसके भूभाग में सत्ता स्थापित कर लेने से ही नहीं होता जब तक उसमें उसकी  अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति भली-भांति फल – फूल न रही हो।
      यह  देवोत्थानी या लोकभाषा में देव उठनी एकादशी का पर्व भगवान श्री  हरि नारायण के जागरण का पुनीत पर्व है और उन्हीं के पूजन को विशेषतया समर्पित है जो प्रकृति प्रदत्त फल- फूल, अन्न -जल इत्यादि  श्रद्धापूर्वक समर्पित कर संपन्न होता है और उनसे तथा भगवती लक्ष्मी से इस अवसर पर सुख -समृद्धि की प्रार्थना की जाती है । यही पर्व देव दीपावली के नाम से भी प्रसिद्ध है। जिसमें देवताओं का हर्षोल्लास भी समाहित है। इस दिन भी भवनों में दीप मालाओं की सजावट तथा पटाखे इत्यादि फोड़कर जनमानस अपनी प्रसन्नता व्यक्त करता है। महिलाओं की पुरानी पीढ़ी तो अभी उस परंपरा का पूर्ववत निर्वाह करती आ रही है ।आगे आने वाली पीढ़ी कितना कर पाएगी कहने में संशय है।
       हरि शयनी एकादशी से गंभीर योग निद्रा में निमग्न हुए विष्णु जी आज ही के दिन जाग कर संसार का समस्त कार्यभार अपने  सर्व बलिष्ठ कंधो पर पुनः  वहन करते हैं। गुरु पूर्णिमा के दूसरे दिन से चातुर्मास्य व्रत का वरण कर आज  ही के दिन समस्त  वीतराग संत महात्मा उसका समापन करते हैं।
        हमें इन वनों,पहाड़ों और  नदियों  के किनारे पर्ण कुटी बनाकर एकांत में  रह रहे विरक्त तपस्वियों के महत्त्व को भी कभी नकारना नहीं चाहिए। जिन्होंने आर्ष काल से ही सद्गृहस्थों  द्वारा प्राप्त मात्र रोटी के  दो टुकड़ों को पाकर उन्हें सदैव  सन्मार्ग पर लगाए रखने का प्रयास किया  और “धन्यो गृहस्थाश्रम: ” का उद्घोष करते रहे । हजारों वर्षों से विविध विधर्मियों के आतंक काल  में भी सभी के भीतर साहस और आशा की ज्योति जलाए रखी। जिसने अपना  घर – परिवार छोड़ दिया ,सारी धन-दौलत छोड़ दी। मात्र ईश्वर के भजन को ही अपना सब कुछ माना । उसने  केवल लोककल्याण के लिए समाज से अपना नाता जोड़े रखा। यह कोई छोटी बात नहीं है। जहां शंकराचार्यों ने शास्त्रोपदेशों से जनता को  जीने का बल प्रदान किया । नियम से रहना सिखाया , वहीं नागा साधुओं ने हाथी- घोड़ों पर चढ़कर के  विविध अस्त्र शस्त्रों और बलिष्ठ काया के  माध्यम से हिंदू जनता की सर्वप्रकारेण रक्षा की। उनकी  तनिक भी चीख पुकार सुनकर प्राणों की बाजी लगा कर दुष्टों के दल – बादल तितर – बितर कर दिए । इन सबके बीच सिखों के उपकार को भी नहीं विस्मृत करना चाहिए । गुरु नानक से लेकर के इन लोगों ने देश धर्म  एवं संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राणों की निस्वार्थ भाव से आहुति दी है  । सिख का तत्सम शिष्य ही होता है ।अर्थात उन   दसों गुरुओं के शिष्य जिन्होंने देश – धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया  सिख या सरदार कहलाए । एक समय इस देश में ऐसा भी आया कि प्रत्येक परिवार से एक पुत्र को देश और धर्म की रक्षा के लिए समर्पित करना अनिवार्य हो गया था ‌।
       ये सब बातें इन अवसरों पर आज भी हिंदू जनता को  अपने मन की बहुत गहराई से समझना और स्वीकारना चाहिए कि इस पड़ाव तक आते-आते हमारी   आर्य संस्कृति की महायात्रा कितने मोड़ों  और  कोणों से होकर  गुजरी है। जब तक हमारे भीतर इन  सबके प्रति कृतज्ञ भाव नहीं होगा , हम सच्चाई  से रूबरू नहीं होंगे । अपने वास्तविक इतिहास को जानेंगे नहीं ।मजबूती के साथ अपनी ही चेतना की  जमीन पर बहुत देर तक खड़े नहीं रह सकते ।
         हिंदू धर्म अपने देश काल और अपनी प्रकृति देवी के साथ-साथ सांस लेने वाला धर्म है। यहां दूषणों या कुरीतियों का  कोई स्थान नहीं है। यह एक निरंतर परिष्कार की ओर बढ़ती हुई जीवन पद्धति भी है । अगर कभी कुछ कमियां किन्हीं कारणों वश आईं भी तो उनका निवारण करने के लिए अनेकानेक महापुरुषों ने समय-समय पर जन्म लिया और इसे और अधिक सर्वांग सुंदर बनाने का प्रयास किया।

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