हमारे देश में शिक्षा का इतिहास 200-400 साल पुराना नहीं है ।यह तो ऋग्वेद काल से भी पहले का है । जब वैदिक ऋचाओं का संग्रह भी नहीं हुआ था। ऋषियों की एक परंपरा अपने शिष्यों को लेकर निरंतर काम कर रही थी। जिसमें प्रत्येक ऋषि अपने शिष्यों को अपनी ऋचाएं कंठस्थ करा रहा था कि वे उसके माध्यम से समाज की अगली पीढ़ी तक जा सकें। उन बहुत से ऋषियों में से कुछ के नाम संकेत में ही कहीं – कहीं ऋग्वेद की 2-4 ऋचाओं में देखने को मिल जाते हैं । ये ऋषि वशिष्ठ विश्वामित्र ,वामदेव , भरद्वाज इत्यादि से भी बहुत पहले के हैं। जिनके आश्रम और गुरुकुल भी प्राचीन काल से चले आ रहे थे। बाद के ऋषियों ने उन्हीं का अनुकरण कर उस व्यवस्था को आगे बढ़ाया और वह श्रुति परंपरा हजारों वर्षों तक गतिमान बनी रही और आज भी अक्षुण्ण है।
वर्तमान समय में भी कितने ही विद्वान आपको ऐसे मिल जाएंगे जिन्हें पूरा- पूरा एक वेद कंठस्थ है। किसी को ऋग्वेद ,किसी को यजुर्वेद ,किसी को सामवेद तो किसी को अथर्ववेद। सभी उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ , समस्त दर्शन, रामायण, महाभारत, विभिन्न पुराण इसी प्रकार तो गुरु- शिष्य की श्रुति परंपरा से जीवित बने रहे । अन्यथा विधर्मियों ने तो न जाने कितने ग्रंथागार, जलाकर राख कर दिए। महर्षि प्रचेता के संबंध में तो कहा जाता है कि उन्हें एक लाख श्लोकों से भी अधिक श्लोक कंठस्थ थे। संस्कृत के सामान्य विद्वानों को भी 400-600 श्लोक अथवा मंत्र कंठस्थ होना साधारण सी बात है ।
200-250 श्लोक तो वर्तमान में भी मुझे कंठस्थ होंगे ही। जब नित्य ही उन्हीं ग्रंथों का पारायण करना है तो स्वाभाविक है कि वे कंठस्थ हो जाएंगे। संध्योपासना एवं पूजा- पाठ में काम आने वाले मंत्र तथा श्लोक इसी प्रकार से कंठस्थ होते हैं।
जब तक छापाखानों अथवा भोजपत्र इत्यादि में लिखने की कला विकसित नहीं हुई थी । इस देश में गुरु – शिष्य के माध्यम से श्रुति परंपरा ही काम कर रही थी। वास्तव में इसे ही इस देश की शिक्षा का प्रथम चरण मानना चाहिए। अयोध्या ,मिथिला, काशी, उज्जैन, प्रयाग इत्यादि के गुरुकुल और आश्रम वैदिक काल की परंपरा को जीवित रखने के लिए पर्याप्त थे। इन सबके भी बहुत पहले भगवान शंकर का कैलाश पर्वत, परशुराम जी का महेंद्राचल, महर्षि भरत, महर्षि अगस्त्य , देवगुरु वृहस्पति, दैत्यगुरु शुक्राचार्य, महर्षि गौतम इत्यादि के आश्रम चल ही रहे थे। जहां विभिन्न प्रकार की विद्याओं का अध्ययन उपयुक्त शिष्यों को सुचारु रूप से कराया जा रहा था । इनमें पहली प्रकार के आश्रमों एवं गुरुकुलों में एक ही विषय विशेष का विशेषज्ञ आचार्य सपरिवार रहकर उपयुक्त शिष्यों को शिक्षा प्रदान करता था । इसमें गुरु और शिष्य दोनों ही समवेत परिश्रम करके अन्नोत्पादन या फलसंग्रहण करते हुए उदर पोषण करते ।
दूसरे प्रकार के आश्रमों में एक कुलपति होता और उसके अधीनस्थ कई आचार्य होते। यहां भी भिक्षा , कृषि के माध्यम से अन्नोत्पादन अथवा वन से फल संग्रहण इत्यादि ही आश्रम व्यवस्था के आधार थे । यहां किसी भी प्रकार की राजकीय वृत्ति अथवा शासकीय सहयोग नहीं लिया जाता था । शिष्यों से भी किसी प्रकार का शिक्षण शुल्क नहीं ग्रहण किया जाता था। ये लोग इतने स्वाभिमानी थे कि किसी भी प्रकार की राजकीय वृत्ति या सहायता को अपनी मान – हानि अथवा स्वतंत्रता में बाधा मानते थे। हां, शिक्षा की समाप्ति पर शिष्य जो भी गुरु दक्षिणा सहर्ष प्रदान कर दे उसे ग्रहण कर लेते। बाद में कुछ द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे आचार्य राज्याश्रित भी हो गए । इस प्रकार के आचार्यों को उस काल में बहुत निचली दृष्टि से देखा जाता था जो किसी भी प्रकार का शुल्क ग्रहणकरके शिक्षा प्रदान करते थे उन्हें उपाध्याय की श्रेणी प्राप्त थी जो आचार्यत्व की सबसे निचली पराकाष्ठा है।
इनमें कुछ आचार्य ऐसे भी थे जो राजा के पुरोहित भी होते थे और उसके परिवार के समस्त कर्मकांड भी वही संपन्न कराते थे जैसे अयोध्या में महर्षि वशिष्ठ तथा मिथिला में महर्षि गौतमपुत्र सतानंद जी ।
इस काल खंड के शिष्य पूर्णतया अपने गुरु के प्रति समर्पित होते थे । गुरु भी शिष्य की आत्मिक उन्नति को ध्यान में रखते हुए जहां – जैसा उचित समझता , कोमल अथवा कठोर अनुशासन व्यवहार में लाता । इस समय के गुरु – शिष्यों में महर्षि धौम्य , महर्षि कण्व , महर्षि अष्टावक्र, योगीराज राजर्षि शीरध्वज विदेह जनक, उपमन्यु , उद्दालक, सत्यकाम, रैक्व इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। उस समय ऐसे – ऐसे शिष्य हुए जिन्हें बैलों की जगह हल में जोत दिया गया और वे सहर्ष जुत गए, खेत का पानी रोकने के लिए भयानक ठंड में रात भर लेट कर टूटी मेड़ का काम किये, गुरु के आदेश पर अन्न -जल क्या, पेड़ों के पत्तों तक का महीनों परित्याग कर दिया, राजकुमार होकर भी आसपास के गांवों में आश्रम के लिए भिक्षा मांगी। इनमें गुरु की ही नहीं ,शिष्यों की भी महानता ध्वनित हो रही है।
दीक्षांत समारोह में गुरु का शिष्य के प्रति एक ही निर्देश था -” यान्यस्माकं सुचारितानि तानि तान्योपास्यानि नो इतराणि।” अर्थात “जो भी हमारे मे शुभता या श्रेष्ठता है ,उसे ही तुम ग्रहण करना , इसके अलावा कुछ अन्य नहीं ।”
उस समय की प्रार्थनाओं में मुख्यतया – “संगच्छध्वं, संवदध्वं ,सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।”।
अर्थात “हम सब साथ -साथ चलें , एक जैसा ही बोलें,एक दूसरे की मन की जानें और जिस प्रकार से देवताओं ने प्राचीन काल में अपने ही भाग का उपभोग किया था हम भी उसी प्रकार से मात्र अपनी ही प्राप्त वस्तुओं का उपयोग करें ,दूसरे की संपत्ति छीनने का प्रयास न करें।”
“सहनाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु ,मा विद्विषावहै।” अर्थात “एक दूसरे की सदैव रक्षा करें, साथ-साथ मिलकर के समस्त संपत्तियों का उपयोग करें, एक साथ मिलकर के शत्रुओं के विरुद्ध पराक्रम प्रदर्शित करें, हमारा अध्ययन एवं अध्यापन तेजस्वी हो तथा हम गुरु और शिष्य आपस में कभी भी एक दूसरे का विरोध न करें।”
“अभयं मित्रात् ,अभयम् अमित्रात, अभयम् ज्ञातात्, अभयं पुरोय:।
अभयं नक्तं, अभयं दिवान:, सर्वा आशा मम् मित्रम् भवंतु।।”
(स्वरचित पद्यानुवाद)
हम मित्र और अमित्र से ,अज्ञात अथवा ज्ञात से ।
सम्मुख तथैव परोक्ष से, निर्भय रहें हर बात से।।
दिन हों अभयताप्रद तथा रातें सदा भयहारणी ।
हों सब दिशाएं मित्र सम कल्याणमयि शुभकारिणी ।। इत्यादि हैं।
इन्हीं सबके बीच महाभारत काल की द्रोणाचार्य और एकलव्य की कथा भी समाज में बहुत प्रचलित है। एक तो मात्र कौरव और पांडव राजकुमारों को द्रोणाचार्य जी धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान करने के लिए नियुक्त , वे किसी अन्य के नीतिगत शिक्षक नहीं हो सकते थे । फिर एकलव्य ने स्वत: सभी राजकुमारों के सामने उन्हें अपना गुरु बताकर उनसे धनुर्विद्या प्राप्त करने का उल्लेख किया । राजकीय वृत्तिभोगी शिक्षक के लिये ऐसे शिष्य को दंड देना अनिवार्य ही था। वह उस समय तो क्या , इस समय भी नियमत: दंड का भागी ही होता । बिना विद्यालय में नाम लिखाए , बिना अनुमति प्राप्त किए चोरी छिपे किसी से शिक्षा ग्रहण करना, ऊपर से सबके सामने इस बात का ढिंढोरा भी पीटना कहां तक न्यायसंगत है? लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि कोल- भीलों ने तब से अंगूठे का प्रयोग धनुष बाण चलाने में छोड़ दिया और अंत में कोल- भीलों ने ही अर्जुन को पराजित किया- “भीलन लूटी गोपिका, ओईं अर्जुन ओईं बान।” आज भी ओलंपिक और देश स्तर की तीरंदाजी प्रतियोगिता में दाहिने अंगूठे का प्रयोग नहीं होता।
आगे चलकर के बाद में बौद्धों ने अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए कई विश्वविद्यालयों की स्थापना की जिनमें नालंदा,विक्रमशिला, तक्षशिला,वल्लभी, सोमपुरा, पुष्पगिरी,ओदंतपुरी, जगदल, इत्यादि बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें बौध्द धर्म की शिक्षा के अलावा विभिन्न विद्याओं की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी। लेकिन इनमें प्रवेश पाना बहुत कठिन होता, प्रवेश परीक्षा भी बहुत कठोर थी तथा शुल्क भी बहुत अधिक लिया जाता था। इन्हें राजकीय सहायता भी प्रदान की जाती थी । इनमें लगभग समस्त विश्वविद्यालयों को मुगलकाल में ध्वस्त कर दिया गया । इनके खंडहर आज भी यत्र -तत्र देखे जा सकते हैं। बौद्ध दर्शन एवं शिक्षा को विभिन्न देशों में प्रचारित करने का इन्होंने अत्यंत सफल उद्यम किया। विदेशों में आज भी बौद्ध धर्म इन्हीं के कारण सुरक्षित और फल-फूल रहा है। इनके विश्वविद्यालयों से निकले श्रमण और बौद्ध भिक्षुओं ने सुदूर देशों में भी बौद्ध धर्म का झंडा फहरा दिया । इस संदर्भ में इनके महत्व को नकारा नहीं जा सकता । आचार्य चाणक्य यहीं की उपज और एक साधारण शिक्षक थे जिन्होंने नंद वंश को जड़ से उखाड़ फेंका।
मुगल काल में इस देश की शिक्षा- व्यवस्था बहुत कुछ प्रसिद्ध तीर्थों के छोटे-बड़े मंदिरों तक ही सीमित रही। बौद्ध धर्म की शिक्षा तो इस देश में बिल्कुल ठप सी हो गई। मुस्लिमों की आध्यात्मिक शिक्षा व्यवस्था मस्जिदों और मदरसों में आरंभ हुई । हिंदू देव मंदिरों ने अब अपनी शिक्षा व्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए इच्छित शिक्षार्थी को अपने मंदिरों और घरों में ही आश्रय देकर वैदिक और आध्यात्मिक शिक्षा का बीड़ा उठाया।छोटे-मोटे आश्रमों, मठों और शंकराचार्यों के संरक्षण में यह शिक्षा निरंतर गतिमान रही। और आज भी वाराणसी, उज्जैन, मथुरा, द्वारिका,जगन्नाथ पुरी इत्यादि में उसी तरह से गोपन या प्रत्यक्ष रूप में गतिमान है। स्वामी दयानंद सरस्वती इसी प्रकार की शिक्षा से उपजे महान संत थे। स्वयं आदि शंकराचार्य भी इन्हीं आश्रमों की उपज थे। अब पहले जैसे हजारों की संख्या में अध्ययन और अध्यापन कराने वाली संस्थाओं का अभाव हो गया था। क्योंकि अब तो हिंदुओं का जीना ही मुश्किल था। प्रकट रूप से किसी प्रकार की ऐसी शैक्षिक संस्था चला पाना संभव ही ना था। इस समय आध्यात्मिक गुरुओं का समूह आगे बढ़ा और रामानंद वल्लभाचार्य नरहरि इत्यादि ने कबीर, सूर,तुलसी, मीराबाई इत्यादि संतों की परंपरा को आगे बढ़ाया । यहां भौतिक शिक्षा शून्य के बराबर रही लेकिन आध्यात्मिक शिक्षा विशेष रूप से भक्ति मार्ग की शिक्षा ने सामान्य जनता के हृदय में आस्था ,श्रद्धा ,विश्वास की संजीवनी फूंकी और उस भयानक आतंकी काल में भी हिंदू जनता मरती -खपती अपने संस्कारों को संजोए रही । अपने सनातन धर्म को बचाए रखा। यह सब इन्हीं संत महात्माओं की शिक्षा -दीक्षा का परिणाम है कि विधर्मी मुगलों के अत्याचारों तथा प्रलोभनों के सम्मुख बिना झुके हुए अपने सनातन हिंदू धर्म को आज तक हम सब ने बचाए रखा है ।
अब अंग्रेजी हुकूमत में शिक्षा के दौर की बात आती है जिसका जन्मदाता मैकाले को माना जाता है। अंग्रेजों को कुछ ऐसे भारतीयों की आवश्यकता थी जो उनकी भाषा को समझ सकें और उनके शासन तथा व्यापार इत्यादि में उनका सहयोग कर सकें। इसके लिए सबसे पहले उन्होंने कोलकाता में एक विद्यालय की स्थापना की और नए ढंग की शिक्षा व्यवस्था की नींव रखी। ईसाई मिशनरियों ने भी स्कूलों की स्थापना में अपना योगदान दिया । साथ में वहां की प्रबुद्ध जनता और समाजसुधारकों ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए उनका साथ दिया और वह व्यवस्था आगे चल डगरी ।
राजाओं ,महाराजाओं और जमीदारों के बच्चों के पढ़ने के लिए बनारस में क्वींस कॉलेज की स्थापना की गई । इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, शांतिनिकेतन, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कितने ही शिक्षा संस्थान और शिक्षण संस्थाएं इस ओर काम करने लगीं। जो लोग बहुत ही धनवान थे उनके बच्चे इंग्लैंड में भी अध्ययन के लिए गए। अब शिक्षा व्यवस्था कई भागों में बट गई- प्राइमरी, वर्नाकुलर, जूनियर हाई स्कूल, हाई स्कूल, इंटरमीडिएट स्नातक, परास्नातक, पीएचडी डिलीट ….। इन विद्यालयों में पढ़ाने वाले अध्यापकों और विद्यार्थियों की खेप कुछ अलग ही तरह की तैयार होने लगी। धोती – कुर्ता के स्थान पर सूटेड बूटेड टीचर और विद्यार्थी कुछ अलग तरह के ही दिखने लगे। इस नई शिक्षा व्यवस्था ने जहां सर्व सामान्य से लेकर उच्च वर्ग तक के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था प्रस्तुत की , वहीं पाश्चात्य ज्ञान – विज्ञान की ओर भी लोगों को आकर्षित किया। इस समय भी जो शिक्षा व्यवस्था प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक प्रदान की जा रही है बहुत कुछ अंग्रेजी व्यवस्था के तर्ज पर ही है। इन सब बदलावों के बीच आचार्य और गुरु परिवर्तित होकर शिक्षक, अध्यापक, टीचर या मास्टर साहब हो गया और शिष्य छात्र ,विद्यार्थी और स्टूडेंट में बदल गया। जहां प्राचीन शिक्षा पद्धति गुरुकुलों की स्वतंत्र स्वावलंबी प्रणाली पर आधारित थी आज विभिन्न संस्थाओं और शासकीय नियमावलियों पर आश्रित है क्योंकि उन्हीं के आर्थिक सहयोग से इनका संचालन हो रहा है। जिस तरह से समय तेजी से बदल रहा है उसी तरह से इस देश की शिक्षा भी नित नई-नई करवटें ले रही है। जहां 40- 50 साल पहले तक प्रत्येक प्राइमरी स्कूल में कम से कम पांच अध्यापक होना अनिवार्य था । कभी -कभार ही लिखित सरकारी आदेश आते थे ।आज प्रत्येक प्राइमरी स्कूल में अधिक से अधिक दो अध्यापक और एक या दो ही शिक्षामित्र मिलेंगे। न जाने कितने ऐप मोबाइल में डाउनलोड हैं, न जाने कितनी सूचनाएं तत्काल भेजनी रहती हैं । सख्त पर सख्त आदेश हैं, तुरंत कार्यवाही की चेतावनी। मिड डे मील की व्यवस्था रोजअलग से करनी है। इन सब के बीच में और भी ढेर सारे ऑफिस के काम । कक्षाएं 5 और अध्यापक 3, उस पर भी मोबाइल पर ढेर सारी सूचनाएं रोज ही भेजनी हैं। जितने चुनाव, जितनी गणनाएं सब इन्हीं मास्टरों के जिम्मे । अगर एक भी शब्द मुंह से निकल जाए तो तुरंत कोई न कोई ऑडियो -वीडियो बनाकर जिले स्तर पर ही नहीं प्रदेश स्तर से ऊपर भी फॉरवर्ड कर देगा। उस अध्यापक या कर्मचारी की सर्विस तुरंत खतरे में । अब तो किसी छात्र को गुस्से से देखना भी अपराध की श्रेणी में आता है,डांटना ,फटकारना और मारना- पीटना तो छोड़िए। इतना होने पर भी दबाव यह है कि विद्यालय को जिले में सबसे टॉप आना चाहिए। कक्षा चार तक किसी विद्यार्थी को किसी कक्षा में रोका नहीं जा सकता। चाहे उसे वर्णमाला का भी ठीक-ठाक ज्ञान न हो पाया हो। प्राईमरी का अधिकतर बच्चा केवल दोपहर के भोजन के लिए और विद्यालय से उपलब्ध होने वाली धनराशि के लिए ही मुख्यतया आ रहा है । बच्चों को किसी बात पर टोका तो तुरंत उसके मां-बाप विद्यालय में हाजिर। कक्षा 5 मे अधिकतर छात्रों को प्रथम श्रेणी में पास होना अनिवार्य।
जूनियर एडेड स्कूल्स या इंटर कॉलेजेज की भी अलग कहानी है । जो मैनेजमेंट का जितना अधिक चहेता है उतना ही मजे में है और जिस पर मैनेजमेंट की नजर टेढ़ी , वह चाहे जान लगा दे उसे साल के अंत में कारण बताओ की नोटिस मिलनी ही मिलनी है । 30 -35 साल पहले तक एक सेक्शन 34 छात्रों से अधिक का नहीं होता था । अब 90-95 छात्र एक सेक्शन में होना साधारण बात है। हाई स्कूल और इंटरमीडिएट में प्रत्येक विषय के दो प्रश्न पत्र होते थे। हिंदी के तीन प्रश्नपत्र थे। अब प्रयोगात्मक विषयों को छोड़कर सब में एक ही प्रश्न पत्र होता है। हाई स्कूल के चार विषय इतिहास, भूगोल ,नागरिक शास्त्र और अर्थशास्त्र को जोड़कर एक ही विषय ‘सामाजिक विज्ञान’ बना दिया गया है। उसको पढ़ाने वाला एक ही अध्यापक । यहां भी रजिस्टर का सारा काम तथा मोबाइल के सारे ऐप निपटाना ही निपटाना है अन्यथा तुरंत सख्त से सख्त कार्यवाही की चेतावनी। अधिकतर विद्यालयों में अध्यापक पूरे टाइम सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में। यह सब तो मैं वर्तमान अध्यापक की दुख गाथा सुना रहा था। अब दूसरा पक्ष भी सामने रखना बहुत जरूरी है।
ऐसे – ऐसे अध्यापक नियुक्त होकर आए हैं जिन्हें हिंदी तक में शुद्ध वाक्य रचना छोड़िए ठीक-ठाक मात्राओं का भी ज्ञान नहीं है। चारित्रिक हीनता की कहानी तो इतनी भयानक है जो कही ही नहीं जा सकती । अभी दश, पंद्रह साल पहले फतेहपुर नगर के पास ही अस्ती के प्राइमरी विद्यालय में एक अध्यापक की अश्लील गंदी हरकत से परेशान होकर के एक छात्रा की मां ने उसे कक्षा के बीचो-बीच ही जाकर चप्पलों से पीटा था। यह समाचार उन दिनों सभी अखबारों की सुर्खियों में था। बाद में उसे पुलिस को सौंप दिया गया। इसी तरह के या इससे भी भयानक कुकर्मों के कारण भिटौरा का महर्षि महेश योगी जी का आश्रम बंद हो गया । वहां के विद्यार्थी दुष्ट आचार्यों की भयानक गंदी आदतों से आजिज आकर बीच में ही अपना अध्ययन छोड़ बैठे ।
एक से एक विचित्र शिक्षा जगत के समाचार अखबारों में प्रायः पढ़ने को मिलते रहते हैं। अब तो सोशल मीडिया भी इस सब में बहुत सक्रिय है । किसी अध्यापक ने किसी लड़के को डांट दिया तो उसने फांसी लगा लिया। किसी अध्यापक ने किसी लड़के को ऐसा मारा कि उसकी रीढ़ की हड्डी ही टूट गई। किसी विद्यार्थी को किसी अध्यापक ने उठाकर पटक दिया जिससे उसकी गर्दन की हड्डी चटक गई ।प्रार्थना सभा में किसी प्रिंसिपल ने किसी विद्यार्थी को किसी छात्रा को परेशान करने पर डांटा तो दूसरे दिन विद्यार्थी ने कॉलेज के गेट में ही प्रिंसिपल साहब को गोली मार दी । प्रिंसिपल साहब वहीं ढेर हो गए।
न इधर संस्कार ,न उधर संस्कार। न अध्यापक ही अध्यापक जैसे रह गए और न विद्यार्थी ही विद्यार्थी जैसे। गुरुदेव गुरूघंटाल से आगे बढ़कर गोरू हो गए । विद्यार्थी विद्या को चाहने वाले न होकर विद्या की अर्थी अपने कंधों पर उठा लेने वाले हो गए। कबीर दास जी का वह दोहा- गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।
की जगह आधुनिक गुरुओं को चेतावनी के रूप में मैं यह कहना चाहूंगा- कबिरा वे दिन लदि गए ,चेला पूजेन पांय ।
अब वे गुरु की खोपड़ी, फोरत ना सकुचांय।।
इसके अलावा भी – टीचर की जिंदगी भी क्या ही अजीब साहब,
कहने को मास्टर पर बदतर गुलाम से है।
आजकल अध्यापकों की कैटिगरी भी बहुत तरह की है। कुछ ऐसे भी अध्यापक हैं जो महीने भर 7-7,8-8 घंटे बंधुआ मजदूर की तरह लगातार काम करके भी डेढ़ हजार रुपए तक महीने के अंत में नहीं पा रहे तो कुछ अध्यापक साठ, सत्तर हजार से लेकर डेढ़ , दो लाख के बीच मासिक वेतन में हैं।
यह लेख सम्पूर्ण शिक्षा जगत की पूरी झांकी प्रस्तुत करने में तो असमर्थ है लेकिन उसका सूक्ष्म विहंगावलोकन है । इसे पढ़ कर न किसी को बहुत अधिक खुश होने या क्रोधित होने की आवश्यकता है और ना ही व्यक्तिगत अपने ऊपर आक्षेप के रूप में ग्रहण करने की जरूरत है। हर समाज में हर समय अच्छे और बुरे लोग रहे हैं और रहेंगे भी । पूरे लेख को तुलसीदास जी की इस पंक्ति के साथ समाप्त कर रहा हूं कि “केशव, कहि न जाय, का कहिए।”
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शिक्षा ,शिक्षक और शिक्षार्थी – पुरातन एवं अधुनातन परिदृश्यलेखक : शैलेन्द्र कुमार द्विवेदी
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