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       श्रद्धा और भक्ति का पुण्य पर्व- कार्तिक पूर्णिमा  लेखक  :  शैलेन्द्र कुमार द्विवेदी

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    कार्तिक पूर्णिमा का स्मरण आते ही गंगा स्नान का पर्व मस्तिष्क में घूम जाता है। उस पर भी शिवराजपुर की कतकी का इस जनपद में कुछ अलग ही महत्व है जो कि सैकड़ो वर्षों की हमारी आस्था को व्यक्त करता है। अब तो शिवराजपुर से गंगा जी बहुत दूर चली गईं । गांव को पार करके पांडु नदी पड़ती है। उसको भी पार करके लगभग तीन या चार किलोमीटर दूर अब गंगा जी खिसक गई है, नहीं तो एक समय था कि गंगा जी शिवराजपुर के मंदिरों को छूती हुई गुजरती थीं। मंदिरों के किनारे बने हुए पक्के घाट  और बना हुआ बंदरगाह अभी भी इसके प्रमाण हैं । 10 -15 साल पहले का  ही वाकया है जब बाढ़ आई   गंगा जी सचमुच अपने पुराने घाटों में आकर पुनः बहने लगी थीं और उनकी धारा में मंदिरों के प्रतिबिंब झलमला उठे थे । उस समय की सौंदर्य – सुषमा का बखान कर सकना बड़ा ही कठिन है। यहीं पर मीराबाई के लाए हुए गिरधर गोपाल विराजते हैं ।कुछ लोगों का तो यहां तक कथन है कि मीराबाई जी अंत समय में यहीं पर आई थीं और  “मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।” गाते हुए इसी मूर्ति में समा गई थीं। उस मंदिर के अलावा  और भी कई खूबसूरत दर्शनीय मंदिर यहां पर हैं।
    अब तो लोग टेंपो, बस, मोटर कार ,बाइक वगैरा से  शिवराजपुर जाते हैं। मेला भी लगभग 10 या 15 दिन लगता है ।  50- 60 साल पहले तक मेला देखने का सबसे  सुलभ और सुंदर साधन बैलगाड़ी ही था। हमारे जनपद के बड़े ही प्रसिद्ध हास्य कवि जो अभी तीन-चार साल पहले ही 95 साल के होकरके दिवंगत हुए हैं- श्री तारकेश्वर बाजपेई लल्लन जी। जिनकी हास्य कविता “कतकी  अउतै हुनकैं लागीं हम हूं मेला द्याखैं जैबे ।” बड़ी ही प्रसिद्ध रही। उस कालखंड के  कतकी मेले का यह कविता बड़ी ही खूबसूरती, जीवंतता और व्यंग्य विनोद के साथ  मनोरंजक स्वरूप प्रस्तुत करती है। शिवराजपुर के पूर्व प्रधान  रमाकांत त्रिपाठी जी ने वहां मेले में दो-तीन बरस कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया था  जिसमें इस जनपद के ही नहीं गंगा पार तथा बांदा जिले के भी कवियों का आगमन होता था। मुझे भी वहां जाने और काव्य पाठ का मौका मिला‌ यह बात लगभग 25 – 30 साल पुरानी हो गई । लल्लन जी भी उस कवि सम्मेलन में आए थे और उन्होंने बड़े उत्साह से अपनी वह कविता सबको सुनाई भी । वह कविता उन्होंने 1958 में लिखी थी । उनकी कविता सुनकर के सभी के मनोमस्तिष्क में उस समय के मेले का संपूर्ण चित्र उभर आया ।
      मैंने भी बचपन में बैलगाड़ी से अपने गांव से शिवराजपुर आकर   कतकी मेला देखा है । उस समय का आनंद ही कुछ और था । 2-3 दिन पहले से ही मेला जाने की तैयारी होने लगती । रात को ही पूरी, सब्जी ,गुझिया वगैरा बनाकर रख ली जातीं और सवेरे 4:00 बजे ही पूरा का पूरा गांव अपनी- अपनी बैलगाड़ियों से निकल पड़ता। पक्की सड़क के नाम पर केवल चौडगरा के पास का जीटी रोड मिलता था बाकी सब कच्चा रास्ता। अब तो सब कुछ बदल गया है। तब पांडु नदी और गंगा जी का स्वरूप भी ऐसा नहीं था।
        सच पूछिए तो गंगा जी की दुर्दशा हरिद्वार के पीछे से लेकर और कानपुर, फतेहपुर तथा इसके आगे  कुछ इसलिए भी है कि उसकी संपूर्ण जलराशि उसे मिल ही नहीं पाती , वह आजादी से प्रवाहित ही नहीं  हो पा रही । अंग्रेजों के समय से हर की पैड़ी हरिद्वार में उस पर बांध पहले से था ही  । जब से टिहरी बांध बना, गंगा जी का जल इधर आ  ही नहीं पाता । सब वहीं रुका रहता है।यह  थोड़ा बहुत जल जो आगे आपको मिल पा रहा है वह मात्र उसका झरन है  अथवा उसके आगे की छोटी-मोटी नदियों और नालों का पानी है। नरौरा बांध और बन गया । जब नदी को उसका जल ही नहीं मिल पाएगा और गंदे नालों तथा फैक्ट्रीज  का अपशिष्ट वैसा का वैसा या उससे कुछ अधिक उसमें समाहित होता रहेगा तो उसकी स्वच्छता तथा पवित्रता की कल्पना करना या कामना करना अमावस की रात में सूरज देखने जैसा ही है।
       मुझे तो आज गंगा ही क्या अधिकतर नदियों की दुर्दशा  देखकर रोना आता है। वह समाज, वह देश किस तरह का है, किस उन्नति के रास्ते पर बढ़ना चाहता है जो अपनी मातृ कुक्षि पर ही प्रहार कर रहा है। हिमालय या अन्य पर्वतों झीलों या स्रोतों से  उत्पन्न हुई यह नदियां हमारी मां हैं । इनको यहां तक इस रूप में लाने में  कितनों की ही कितनी ही पीढ़ियां खप गई हैं । इनको धरती पर उतारने वालों ने लोक- कल्याण के कितने सघन सपने बुने होंगे। लेकिन हाय रे दुर्बुद्धि!
        प्रकृति के पांच के पांचो तत्व अब अपनी दुर्दशा पर रो रहे हैं। धरती ,जल अग्नि, वायु,आकाश कौन सा ऐसा तत्व रह गया है जो अपनी पूर्णता में स्वस्थ और सानंद कहा जा सके। सारे के सारे पहाड़ खोखले पड़े हैं। खनिज पदार्थों के बेतहाशा खनन और दोहन से धरती पोली होती जा रही है। हिमालय के कितने ही झरनें दिन पर दिन बंद होते जा रहे हैं। तालाब,कुएं, झीलें तथा अन्य विभिन्न जलीय स्रोत क्रमशः क्षीण या समाप्त होते जा रहे हैं । उन पर अनधिकृत निर्माण पर निर्माण होता जा रहा है । नाना प्रकार की औषधियों , वृक्षों के सुरम्य  वनों के स्थान पर ईंट, पत्थर,कंक्रीट के घने जंगल खड़े होते जा रहे हैं। नदियां क्या  अब तो समुद्र तक प्रदूषण की चपेट में हैं। आकाश में ओजोन परत का रोना रोया जा रहा है। यह आज का आदमी किस तरह का हो गया है! प्रकृति के उपादान जो उसको उसकी जीवन यात्रा को सुगम बनाने के लिए प्रस्तुत किए गए थे, उन्हें ही दिन पर दिन नष्ट करने पर तुला है। एक बार उज्जैन जाने का मौका मिला उज्जैन के तुरंत बाद ही शिप्रा से भी गहरा और चौड़ा गंदा नाला काल भैरव मंदिर से  भर्तृहरि  गुफा के बीच में मुझे देखने को मिला जो शिप्रा में ही समाहित हो रहा था। मन अथाह कष्ट से भर गया । हाय,यह नदी क्या सोचती होगी ?
       चित्रकूट में मंदाकिनी की दुर्दशा किसी को देखनी हो तो रामघाट के थोड़ा आगे ही देख ले, पुल के बाद ही पूरा का पूरा गंदा नाला बन गई है। किस नदी का रोना रोऊं। पांडु नदी में पूरा का पूरा  तेजाब बह करके आ रहा है। सारी बैटरी इसी में साफ होती है। कानपुर के  सारे गंदे नाले,  फैक्ट्री से निकला अपशिष्ट बिना किसी ट्रीटमेंट के गंगा जी में शान के साथ पहुंच रहा है। अब यह कहना गलत है कि “कूप में ही इहां भांग परी है।” अब कहना चाहिए कि “भांग से ही इहां कूप भरा है।” पता नहीं अब वह कौन से लोग होंगे जो इन बातों पर विचार करके वास्तविक धरातल पर कुछ कर दिखाने की हिम्मत जुटाएंगे।
      कार्तिकी पूर्णिमा तुलसी विवाह एवं सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देव जी के जन्म दिवस के रूप में भी प्रसिद्ध है। माता तुलसी वृंदा का नूतन जन्म हैं। वृंदा वही सती- साध्वी असुर नारी  है जो जलंधर नाम के असुर की पत्नी भी रही है और जिसका सतीत्व उसके पति जलंधर के भगवान शंकर से युद्ध करते समय भगवान विष्णु ने छलपूर्वक नष्ट कर दिया था। तभी से  शालिग्राम रूप भगवान विष्णु के विग्रह पर तुलसी दल चढ़ाया जाता है।
       कई बार जब मैं गंभीरता से भगवान विष्णु और भगवान शिव के व्यक्तित्व पर विचार करता हूं तो पाता हूं कि जहां भगवान शिव मानवी सभ्यता एवं समूची सृष्टि के अत्यंत सन्निकट हैं। उसकी मर्यादाओं से प्रीत भाव से बंधे हुए हैं। निरंतर उसके कल्याण कामना में डूबे हुए हैं और  ऐसे वे  हों  भी क्यों न ,जब शिव का अर्थ ही कल्याण होता है। वहीं  विष्णु  सब बंधनों, मर्यादाओं और नियमों से परे हैं। विष्णु का अर्थ विराट होता है। विराट का तात्पर्य  जिसमें संसार का सब कुछ अपने वास्तविक स्वरूप में वैसा का वैसा ही अच्छा बुरा अपने सभी परिवर्तनों के साथ समा  जाए और आगे भी वैसा ही समाहित होता रहे।
       शिव के लिए चाहे दैत्य हो, दानव हो, असुर हो, देवता हो, नर ,किन्नर, यक्ष ,गंधर्व , नाग , सिद्ध ,आर्य, अनार्य, कोई भी हो यदि उनकी शरण में  आए तो उनके दरवाजे से कभी निराश नहीं लौट सकता। चाहे वह स्वयं ही संकट में पड़ जाएं ।उसकी इच्छा तो उन्हें  पूरी  करनी ही करनी है ‌। उनके भक्तों में भस्मासुर, रावण,बाणासुर तथा स्वयं परशुराम इत्यादि की कथाएं उनकी कुछ इसी तरह की विशेषताएं समाज के सम्मुख प्रस्तुत करती हैं। जालंधर स्वयं भी उन्हीं के द्वारा उपजाया हुआ उनका संकट था। भस्मासुर की कथा तो प्रायः सभी लोग जानते हैं । उस समय भी श्री हरि नारायण  ही  उनके संकटमोचक बनकर पधारे थे।  रावण ने उनके द्वारा अपनी  प्रिय पत्नी पार्वती के लिए जाने कितने गहरे मनोयोग से  बनाई हुई लंका ही गृह प्रवेश के समय  पुरोहित बनकर दक्षिणा के रूप में छीन ली, बाणासुर ने उन्हीं से अपने लिए सर्वत्र विजय का वरदान मांगा और एक दिन उन्हीं से  युद्ध करने आ डटा, परशुराम जी का तो कहना ही क्या, उनके बड़े लड़के कार्तिक का अंग- भंग किया – उसके  छहो मुख ही आपसी झगड़े में मरोड़ दिए। छोटे लड़के गणेश का परसु मारकर दांत तोड़ दिया और इतने में  भी शांति न मिली तो उनके सर पर ही उनका दिया हुआ विद्युदाभ  नामक फरसा मार दिया तब से वे आशुतोष शिव खंडपरशु के नाम से प्रसिद्ध हो गए। पर अपनी कल्याण वृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगाया। सब वैसा का वैसा ही चलता रहा। किसी के भी प्रति कोई लगाव में कमी नहीं आई ।
      कुबेर जो उनका सखा कहा जाता है जिसे संपूर्ण कैलाश पर्वत का वे मालिक बनाए बैठे हैं। एक बार पार्वती पर ही कुदृष्टि डाल बैठा।  वे भोले बाबा तो कुछ समझ ही नहीं सके, न उन पर इसका कोई प्रभाव  ही पड़ा लेकिन पार्वती जी से यह अपराध सहन नहीं हुआ और उनके क्रोध से देखते ही इसकी एक आंख  चली गई । तब से यह  काना है। इसको देखना भी अपशकुन है । दीपावली में इसकी कभी पूजा नहीं होती थी। अपने बचपन से लेकर अब तक कभी अपने घर- परिवार, ननिहाल या पैतृक पक्ष में इसकी कहीं भी पूजा होते नहीं देखी। यह यक्षाधिपति है और धनाध्यक्ष भी है। शायद इसीलिए धन – लाभ के लालच में  लक्ष्मी जी के साथ इसकी भी पूजा कुछ लोग  15- 20 साल के भीतर करने लगे हैं।
       भोले बाबा के रहन-सहन  का भी कोई जवाब नहीं । अपनी समझ से न ये कोई गलत काम करें , नाहीं इनसे किसी का कोई गलत काम बर्दाश्त ही होता है। जिस तरह से तुरंत प्रसन्न होने वाले हैं, वैसे ही तुरंत क्रोध में भी आ जाने वाले हैं। एकदम सहज जीव, न कोई दिखावा, न कोई छिपाव। जो कुछ है , सब सामने ही ।  क्रोध है तो क्रोध, प्रेम है तो प्रेम,प्रसन्नता है तो प्रसन्नता, दुख है तो दुख, अशांति है तो शांति, शांति है तो शांति । जो भी उनके मन के  भीतर है, बिल्कुल साफ-साफ आपको वही दिखेगा।
      ब्रह्मदेव जी को विष्णु के साथ कपट करता हुआ देखकर अपूज्य होने का शाप तो दिया ही, एक बार उनके चारित्रिक दोष पर क्रोध आया तो उनके पांच सिरों में एक सिर ही अपने त्रिशूल से उड़ा दिया। यह तो कहो परमात्मा की कृपा से बच गए, वरना उन्हें  ये मार ही डालते। मात्र पंचानन से चतुरानन बनाकर  छोड़ दिया।
        पूरा का पूरा परिवार विचित्रताओं का घर है लेकिन वह बिल्कुल परेशान नहीं होते । सब संभाले चल रहे हैं। अच्छे खासे कुटुंबी हैं । एक पत्नी सर में बैठी है तो एक बगल में बैठी है। माथे के बीचो बीच आग भड़क रही है तो सिर के ऊपर अथाह जल  प्रवाहित है। मस्तक के एक कोने बैठा दूज का चंद्रमा  अमृत बरसा रहा है। पूरा का पूरा कंठ हलाहल से नीला पड़ा है उस पर भी सांप बिच्छू अपने साथ लिए घूम रहे हैं। दान में चाहे जो कुछ मांग लीजिए किसी चीज की कमी नहीं है लेकिन खुद के रहने का  भी ठिकाना नहीं,  दिन रात मरघट में घूमते हैं ।  चंदन की बात तो छोड़िए शवों की राख तन में लपेटे  मस्त मतवाले नंग- धड़ंग घूम रहे हैं । हाथ में मुर्दे की खोपड़ी लिए भिक्षा मांगना ही पेशा है । घर में बैल है तो शेर भी है ,चूहा है,नाग है, मयूर भी है। सब एक दूसरे के इंतजाम के लिए तैयार बैठे हैं और भोले बाबा भांग और सोमपान करके समाधि के लिए तत्पर हो रहे हैं। उन्हें जैसे  इस सबसे कुछ लेना देना ही नहीं ।  “राम -राम- राम” के भजन में मस्त दूसरी ही दुनिया में खोए हुए हैं।
      भगवान विष्णु के लिए तो जैसे धर्म – अधर्म , पाप -पुण्य , वरदान -शाप , सुख-दुख, हानि -लाभ किसी में कोई भेद ही नहीं है। असुरों के विनाश का बीड़ा उठाया तो भृगु पत्नी दिव्या की गोद में छिपे हुए असुर पुत्र को ही नहीं ,दिव्या का भी अपने सुदर्शन से सिर काट डाला और उसी शान से भृगु जी का शाप भी अपने सिर पर वहन कर लिया। यहां यह भी समझने लायक है कि भृगु जी कोई और नहीं , इनके ससुर ही हैं, भगवती लक्ष्मी इन्हीं की पुत्री हैं। यजुर्वेद में (17/10) सूर्योपस्थापन के समय ईशप्रार्थना में कहा जाने वाला मंत्र इन्हीं पर सटीक बैठता है- विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो
    विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्।
    सम्बाहुभ्याम् धमति सम्पतत्रै:
    द्यावा भूमी जनयन् देव एक:।।
    (स्वरचित  पद्यानुवाद)
    “विश्व नेत्र वह, विश्व मुखी वह, विश्व बाहु विश्वात्मा ।
    धर्माधर्म भुजाओं वाला ,
    विश्व चरण परमात्मा।।
    बिना किसी भी उपादान के
    रची सृष्टि यह सारी,
    बसा हुआ सबके ही भीतर बनकर सबका आत्मा।।”
    हम तो केवल इन दोनों से समस्त सृष्टि के कल्याण की  प्रार्थना  ही कर सकते हैं।
      गुरु नानक देव जी का जन्म इस देश में उस भयानक कालखंड में हुआ जब मुगलों के आतंक से हिंदुओं को अपनी रोटी, बेटी और चोटी तीनों ही बचाना बड़ा ही मुश्किल  काम था। उन्होंने  पिसती – कराहती हिंदू जनता के मन में संगठन, आस्था, श्रद्धा ,विश्वास और भक्ति की संजीवनी फूंकी। जीने के लिए नया उत्साह और बल प्रदान किया।  अनेकानेक मत- मतांतरों को दरकिनार करते हुए मानव- मानव के बीच समत्व और  ममत्व  की दिव्य ज्योति जलाई। उनके जीवन से कितने ही अलौकिक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जबकि वे स्वयं किसी भी चमत्कार के पक्षधर नहीं थे। किसी भी प्रकार के पांडित्य एवं शास्त्रार्थ में रुचि लेने वाले  लोगों में से भी नहीं थे। उनके दिल की बात सीधे सुनने वाले के  दिल में उतर जाए उसी भाषा में बोलने वाले वह सीधे-सादे संत महापुरुष थे। लेकिन  ईश्वर  जिन्हें दैवी क्षमताएं देकर भेजता है तो वे संसार से कुछ ना कुछ अलग दीखते ही हैं। कुछ भी न करना चाह कर के भी यकायक ऐसा हो जाता है कि लोग बलात उनके पीछे -पीछे भक्ति भाव से चल पड़ते हैं। यह शेर उन्हीं  जैसों के लिए तो कहा गया है – “हम तो दरिया हैं,
    हमें अपना हुनर मालूम है,
    हम जिधर भी चल पड़ेंगे,
    रास्ता हो जाएगा।”(बशीर बद्र)
    एक बार कहीं जंगल में उनका डेरा पड़ा हुआ था । वह शांतिपूर्वक एक ओर पैर किये लेटे थे । कुछ लोग पहुंचे, बोले- इधर की तरफ हमारा काबा है आप दूसरी तरफ पैर करके लेटिए।  उन्होंने कहा – जिधर आपका काबा न हो, उधर मेरे पैर कर दीजिए । उन लोगों ने उनके पैर जिधर किए, उधर ही उन्हें अपने काबा की सूरत नजर आई। अंत में उन सबने हाथ जोड़ लिए। आंखों से एक पर्दा हटा- “अल्लाह एक ही दिशा में नहीं है। सब तरफ उसी का नूर बरस रहा है।” एक बार रास्ते चलते कुछ लुटेरे मिल गए लेकिन उनके अलौकिक प्रभाव को देख लूटपाट क्या ,घर परिवार तक छोड़कर उन्हीं के साथ पीछे-पीछे भक्ति भाव से चल दिए । ऐसी जाने कितनी ही उनके जीवन की अद्भुत कहानियां हैं। कहने लगिये तो कितनी ही मोटी-मोटी  किताबें लिख जाएंगी। इस अवसर पर उन्हें भी समस्त देश श्रद्धा पूर्वक नमन करता है।

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